Friday, December 25, 2009

पागल संसार


लेखक- रजनीश शुक्ला
दिन भर अपने तेज से सम्पूर्ण संसार को प्रकाशवान करने के उपरान्त सूर्यदेव के आराम का वक़्त हो चला था । संध्या रानी पश्चिम दिशा के द्वार पर उनका स्वागत करने के लिए आ चुकी थी । आकाश में पक्षियों का अलग - अलग झुण्ड अन्धेरा होने से पहले अपने अपने घर लौटने के लिए आतुर दिख रहा था । पीपल के पेड़ के नीचे वाले छोटे मंदिर से आ रही घंटे की आवाज़ यह संकेत दे रही थी कि संध्या पूजा का समय हो चुका है । लेकिन बस्ती से थोड़ी दूर में स्थित विशालकाय मैदान में खेल में मग्न आठ-दश बच्चों की टोली को देख कर कोइ यह नहीं कह सकता था कि अन्धेरा होने वाला है । मैदान के एक कोने में एक कमरे का खपरैल वाला छोटा सा घर था । घर में रहने के लिए एक अन्धेढ़ उम्र की बुढ़िया के अलावा और कोइ न था । दादी माँ हम लोंगों के यहाँ आने के पहले से मैदान में कुछ ढूंढ रही हैं, खेल कर घर लौटने से पहले एक बच्चा अपने अन्य साथियों से यह बात बोलता है । लगता है उनकी कोई चीज इस मैदान में कहीं गिर गयी है कहकर दूसरे बच्चे ने भी पहले बच्चे की बात का समर्थन किया । सहानुभूति और मदद की भावना दिल में लिए बच्चों का यह समूह परेसान दिख रही दादी माँ के पास पहुंचा । एक बच्चे ने कहा - दादी माँ ! आप बहुत देर से मैदान के चारों ओर घूम-घूम कर कुछ ढूंढ रहीं हैं, हमें बताओ हम सब मिलकर ढूँढने में मदद कर देते हैं । दादी माँ ने कहा - हाँ बेटा ! लाठी को टेक- टेक कर चलने से एक तो कमर दुखने लगी है और ऊपर से वृद्धावस्था की वजह से आँखों में अब वो तेज भी नहीं रहा । तुम लोग सब मिलकर मदद करो तो शायद मेरी खोयी सुई मिल जाये । मैं तो सुबह से ढूंढ ढूंढ कर परेसान हो गयी हूँ, पर चीज है कि मिलने का नाम नहीं ले रही । एक बच्चे ने कहा- दादी माँ! मैदान तो बहुत बड़ा है और सुई बहुत छोटी । आप हमें यह बताईये कि सुई मैदान के संभवतः किस भाग में गिरी होगी ? पूरे मैदान में न ढूंढ कर हम सब मिलकर उस जगह में ढूंढें, जहाँ इसके गिरने की सम्भावना है । दादी माँ ने कहा - बेटा ! सुई तो घर के अन्दर गिरी है , लेकिन अन्दर इतना अन्धेरा है कि मेरा मन तैयार नहीं कि उसे मैं अन्दर ढूँढू । मैदान की रौनकता से मन मंत्र मुग्ध है । यहाँ सुई ढूँढने का दिल करता है । घर के अन्दर का अंधेरापन मन में भय पैदा करता है । दादी माँ की बात बच्चों को बड़ी अजीब लगी । एक ने कहा - जब सुई अन्दर गिरी है तो अन्दर ही ढूँढने से मिलेगी । बाहर ढूढने से कोई फायदा नहीं । हमें घर के भीतर ले चलो, हम सब मिलकर ढूढ़ते हैं । दादी माँ ने कहा - ढूंढना है तो बाहर ही ढूंढो । अन्दर इतना अन्धकार है कि वहाँ तुम्हारी समझ काम नहीं करेगी । दादी माँ की बात सुनकर बच्चे आपस में कहने लगे - उम्र के इस पड़ाव में ये अपनी बुद्धि खो चुकी हैं । पागल को समझाने से क्या लाभ ? बच्चों के मुह से अपने लिए पागल संबोधन सुनकर दादी माँ को दुःख हुआ । उन्होंने कहा - बच्चों ! मैं पागल नहीं हूँ । यदि मैं पागल हूँ तो यह सारा संसार पागल है । मैंने तुम लोगों से वही बात कही है जैसी इस संसार की गति है । भगवान हम सबके अन्दर निवास करते हैं । हम सब बाहरी जगत में इधर- उधर तीर्थ स्थलों में ढूंढते फिरते हैं । हमारे अन्तः करण में इतना अन्धकार है कि हम सब हर मानव जाति के आत्मा में निवाश करने वाले परमात्मा के दर्शन नहीं करना चाहते । आत्मा भी परमात्मा का एक अंश है लेकिन वाह रे पागल संसार! तू मानव जाति की सेवा तो दूर , इसे भांति - भांति प्रकार से जाने अनजाने में दुःख पहुंचाकर देव स्थलों में भगवान को ढूंढता फिरता है । धार्मिक कर्मकांडो में लोग दिल खोलकर पैसा खर्च करते हैं, लेकिन किसी गरीब की बेटी की शादी में कोई आर्थिक सहयोग नहीं करता । मंदिरों में भगवान के नाम पर बहुमूल्य वस्तुओं की भेंट चढ़ाने के बाद लोगों को परम संतोष की अनुभूति होती है, लेकिन मंदिर के बाहर किसी अपाहिज और भूंखे किसी बूढ़े को भरपेट भोजन करने में वह संतोष कहाँ ? लोग भगवान से अपने और अपने परिवार की लम्बी आयु की दुआ नेत्र में आंसू भरकर मांगते हैं । एक असहाय बीमार के आंसू पोछने के लिए कोई उसका इलाज नहीं कराता । बच्चों मै पागल नहीं हूँ । मै तो अपनी चीज इस विशालकाय मैदान में ही ढूंढूंगी । यहाँ मेरा मन लगता है । तुम लोग अपने - अपने घर जाओ । दादी माँ की बात बच्चों को कितनी समझ में आयी, यह तो कहना मुस्किल था, पर बच्चे अपने - अपने घर को लौट गए ।