Monday, February 8, 2010

सूचना का अधिकार अधिनियम २००५


लेखक: चुन्नीलाल जी,
सहयोगी, सलाहकार एवं लेखक,
भारत नव निर्माण (Evolving New India)

आज दिनाँक ०६ फरवरी २०१० को सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ का तीन दिवसीय कैंप संपन्न हुआ। यह कैंप जिलाधिकारी लखनऊ के परिषर में आशा परिवार और जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के बैनर तले सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा ०४ फरवरी २०१० से ०६ फरवरी २०१० तक आयोजित किया गया था। इस कैंप का मुख्य उद्देश्य यह था कि आम जनता जो सरकारी विभागों से अपने हक़ को जानने वा पाने के लिए परेशान रहती है वह सूचना का अधिकार नियम २००५ का प्रयोग करके प्राप्त कर सकती है। वह अपने कार्यों की जानकारी, अपने से जुड़े उन तमाम दस्तावेजों की स्थिति जो उसने विभागों को इस आशय से दिया था कि निश्चित समय में इन पर कार्यवाही होगी और हमारा हक़ हमें प्राप्त हो जायेगा, पता कर सकती है ।

इस तीन दिवसीय कैंप में करीब ३५० लोगों ने जानकारी के साथ आवेदन पत्रों को तैयार करने के विषय में जानकारी प्राप्त की । इस कैंप में लोगों को जानकारी देने के हिसाब से आवेदन बनाने का कार्य किया गया । इसमें तमाम विभागों से सम्बंधित मामले सामने आये जैसे - विधवा पेंसन के फार्म लोगों ने कई साल पहले भरे थे लेकिन उसका जवाब अभी तक नहीं मिला । और तो और उनका फार्म अब कहाँ है ? यह भी कोइ बताने वाला नहीं । बड़ी मुश्किल से ये लोग अपना आवेदन समाज कल्याण विभाग तक पहुंचा पाते हैं क्योंकि उसमें की जो फार्मेलिटीज है उन्हें पूरा करने में तमाम खर्च के अलावा बहुत दौड़ - धूप करनी पड़ती है । तब जाके कहीं फार्म जमा करने की नौबत आती है ।यह करना एक ऐसे आदमी के लिए बहुत मुश्किल का काम है जिसे खाने के लिए लाले पड़े हों। इसी तरह से सरकारी विभाग से रिटायर कर्मचारी कई साल से चक्कर लगाते हैं कि मेरी पेंशन समय से मिल जाये और प्रमोशन के हिसाब से मिले। इसके लिए उन्होंने विभाग के छोटे कर्मचारियों से लेकर बड़े आधिकारियों तक आवेदन किया। लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। अब हार-थक कर बैठ चुके हैं ।इसी तरह का मामला है कि एक वरिष्ठ लिपिक सिविल कोर्ट लखनऊ में कर्मचारी थे ।बेचारे बीमारी के शिकार हो गए और अपना इलाज मेडिकल कालेज से लेकर बड़े-बड़े अस्पतालों में कराया। ठीक तो हो गए लेकिन जितनी बीमारी में तकलीफ नहीं थी उतनी भाग- दौड़ करके अब परेशान हैं। क्योंकि उन्हें मेडिकल खर्च नहीं मिल पा रहा है। जिसको प्रार्थना पत्र देते हैं, एक महीने बाद जाते हैं तो पता चलता है कि उनका प्रार्थना पत्र ही गायब हो चुका है । कोई अपनी भर्ती प्रक्रिया को लेकर रो रहा है। एक सज्जन ने १९७७ में उत्तर रेलवे में सफाई कर्मीं के पद के लिए आवेदन किया था । उनका साक्षात्कार भी हुआ था और मेरिट लिस्ट में नाम भी आ गया । लेकिन बेचारे अभी भटक रहे हैं । उनसे कम नंबर पाने वालों और साक्षात्कार न देने वालों को नौकरी मिल गयी और बराबर तनख्वाह भी उठा रहे हैं । उन्हें क्यों नौकरी नहीं मिली ? यह उनकी समझ से परे है। वह जानना चाहते हैं कि आखिर ऐसा कैसे हुआ ? मेरा नाम मेरिट लिस्ट में आने के बाद भी मैं खाली बैठा हूँ । मुझे नियुक्ति क्यूं नहीं मिली ? मुझसे कम नंबर पाने वाले कैसे नियुक्ति पा गए ?

इन सब परेशानियों को जानने और अपने हक़ की लड़ाई लड़ने में सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ बड़ा कारगर साबित होता है। यह जानने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी । जमकर जानकारी ली । इससे उनका इतना विश्वास हो गया कि चलो अब अधिकारी यदि कुछ नहीं भी करेंगे तो सूचना देने के लिए बाध्य तो होंगे ही । कम से कम यह तो पता चल जाएगा कि हमारा फार्म कहाँ है ? और उस पर क्या कार्यवाही की गयी है ? मेरा काम कि कारणों से रुका है ? यह काम कब तक होने की सम्भावना है ? अब कोई अधिकारी ज्यादा दिनों तक परेशान नहीं कर पायेगा । वह सूचना देने में बहाना नहीं कर पायेगा।

लोगों ने यह सब जानकारी पूर्णतया सूचना के अधिकार अधिनियम २००५ की धाराओं जैसे - ६(१), ६(३) समेत प्राप्त की । सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ में जो धरा ६(१) है वह सूचना प्राप्त करने के लिए आवेदन देने के लिए होती है, जिसके तहत आवेदन किया जा सकता है । धारा ६(३) के तहत अधिकारी किसी भी विभाग से सूचना लाकर आवेदक को देने के लिए बाध्य होता है । वह यह बहाना करके आवेदन अस्वीकार नहीं कर सकता कि यह सूचना या इसका कुछ भाग मेरे विभाग से सम्बंधित नहीं है। इन तमाम जानकारियों के अभाव में कभी-कभी आवेदक का आवेदन विभागीय अधिकारी यह कह कर वापस कर देते थे कि अरे ! यह सूचना तो हमारे विभाग से सम्बंधित नहीं थी । जिस विभाग से सम्बंधित है आप उसमें आवेदन करें ।

उपरोक्त जानकारियों को बताते हुए और इसमें जुड़े कार्यकर्ताओं के संपर्क सूत्र देते हुए, लोगों को जानकारी उपलब्ध कराई गयी । जो लोग आवेदन नहीं बना पाते थे उनको आवेदन बनाना बताया गया । इसको हिन्दुस्तान दैनिक अखबार ने ५ फरवरी २०१० के अंक में प्रकाशित भी किया। इसमें मुख्य रूप से सामाजिक क्षेत्रों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। चुन्नीलाल (जिला समन्वयक , आशा परिवार ), आशीष कुमार, उर्वशी जी , नसीर जी (कार्यकर्ता, आशा परिवार),मानव मूल्य रक्षा समिति की अध्यक्षा श्रीमती लक्ष्मी गौतम जी वा सामाजिक कार्यकर्ता, मैग्सेसे पुरष्कार से सम्मानित, एन ए पी एम के राष्ट्रीय समन्वयक डाँ संदीप पाण्डेय जी ने मुख्य रूप से भाग लिया। विशेष जानकारी देने के लिए और सहयोग के लिए सभी का धन्यवाद।
भवदीय, चुन्नीलाल, (जिला समन्वयक, आशा परिवार)
०९८३९४२२५२१
email :chunnilallko@gmai।com


*Photo by : Dinesh Chandra Varshney for Bharat Nav Nirman Only

Monday, February 1, 2010

बी.आर.जी.एफ. अधूरा बिना जानकारी और लोगों की सहभागिता के


लेखक: चुन्नीलाल जी,
सहयोगी, सलाहकार एवं लेखक,
भारत नव निर्माण (Evolving New India)
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केंद्र सरकार ने तो बड़ी- बड़ी कोशिशें कीं कि हमारे देश में विकास हो। कोई भी जिला पिछड़े क्षेत्र में ना गिना जाये । कोई भी गली- मोहल्ला कीचड़ भरा ना रहे । कोई भी किसान भूख से ना मरे । कोई भी खेती ना सूखे । कोई भी आदमी प्यासा ना रहे । सभी गाँव मोहल्ले नगर शहरों से पक्की रोड द्वारा जुड़ें । लोगों को आने जाने में कोई असुविधा ना हो। प्रत्येक परिवार को बिजली आदि की सुविधा मिल सके। किसी भी योजना का निर्माण करने में लोगों की सहभागिता ली जाए। इसके लिए यदि किसी प्रकार से पैसे की कमी आती है तो वह पैसा बी.आर.जी.एफ. यानी पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष से लिया जा सकता । शायद यही मकसद था बी.आर.जी.एफ. का ।

लेकिन पूरा का पूरा पैसा विकाश के नाम पर बी.आर.जी.एफ. से ही खर्च किया जा रहा है । उसके लिए ना कोई मानक है और ना कोई कार्यों की प्राथमिकता । और तो और इसकी जानकारी सरकारी कर्मचारी से लेकर आम जनता, यहाँ तक कि प्रधान को भी नहीं मालूम जिसे गाँव के विकास की सबसे ज्यादा जानकारी रहती है । जिसे हमेसा गांव में ही रहना है । जो गांव वासियों के साथ हमेसा रहता है। जिसे तीसरी पंचायत का मुखिया कहा जाता है। उसने बी.आर.जी.एफ. का नाम ही नहीं सुना है । जब मैं चंदौली और आजमगढ़ जिले में बी.आर.जी.एफ. के तहत पर्सपेक्टिव प्लान बनाने के लिए (सूचना एकत्रित करने, कार्यशालाओं का आयोजन करने, डीपीटी, बीपीटी, वीपीटी का गठन करने) गया तो अपर मुख्य अधिकारी, इंजीनियर, बीडीओ, सीडीओ, वा अन्य विभागों के जिले स्तर के अधिकारी जैसे - शिक्षा, स्वास्थ, बाल विकास आदि के अधिकारी पूछने लगे कि इस बी.आर.जी.एफ. का मकसद क्या है? इससे इतना पैसा आता है कि वह पैसा कहाँ खर्च किया जायेगा? जिले के विकास के लिए तो पहले से ही हर विकास के लिए अलग- अलग विभाग बना दिए गए हैं। तो फिर इसका क्या मतलब है ? क्या विभागों से अब काम नहीं करवाया जायेगा ? क्या यह काम केवल पंचायतों से ही करवाया जायेगा ?

जिन्हें सारा काम करना है उन्हें ही नहीं मालूम कि इसमें कौन- कौन से काम शामिल किये जायेंगे । कौन -कौन से काम कराना है ? और कौन से नहीं ? यहाँ तक कि अपर मुख्य अधिकारी भी मुझसे पूंछने लगे कि आप ही बताइए कि इसके तहत कौन - कौन से कार्य कराये जायेंगे ? तो मैंने पूंछा कि आप लोग २००७ से पैसा बराबर खर्च करते चले आ रहे हैं । अब २००९ में हमसे पूंछ रहे हैं कि पैसा किन कामों में खर्च किया जायेगा ? तो उनका जवाब था कि हम लोंगो को इसकी पूर्ण जानकारी नहीं है। हम लोग केवल कार्य का प्रस्ताव बनाकर भेज देते हैं बस । बाकी उसकी मंजूरी का अधिकार, कौन काम लेना है , कौन काम नहीं लेना है , मंत्री जी करते हैं । जब मैंने पूंछा कि आप लोग कैसे बजट तैयार करते हैं, किस तरह के कामों का चुनाव करते हैं, क्या यह काम ग्राम पंचायत , क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत, नगर पंचायत , नगर पालिका परिषद् की मीटिंग करके ? तो उन्होंने बताया कि हम लोग अपनी - अपनी विकास संबंधी योजना का निर्माण अपने आप कर लेते । उसके बाद जिले की समिति को भेज दिया जाता है । अब उनकी मर्जी है किसे रखते हैं , किसे हटाते हैं । इसी तरह डीपीटी गठन के लिए मुख्य विकास अधिकारी चंदौली के मीटिंग हाल में एक कार्यशाला बुलाई गयी । इस कार्यशाला में अधिकारीयों को बी.आर.जी.एफ. के विषय में बताया गया । सबसे बड़ी बात जो निकल के आयी -किसी भी अधिकारी को अपने विभाग के अलावा दूसरे विभागों की जानकारी नहीं थी । इसका सीधा सा जवाब था - विभागों का आपस में समन्वय का ना होना । जब विभागों का समन्वय आपस में नहीं है तो वो आपस में फूट चलती है । एक दूसरे से दुश्मनी रखते हैं तो वो विकास कैसे कर सकते हैं ? इसीलिये किसी योजना की जानकारी सभी लोंगो को मालूम होना चाहिए ।

मेरी सोच -
मेरी सोच यह है कि हम विकास किसके लिए चाहते हैं ? लोगों के लिए या अपने लिए ? यह सवाल सबसे बड़ा है ।अगर हम यही तय नहीं कर पाते कि विकास किसको चाहिए, तो चाहे जितनी योजनायें, कानून चलायें जाएँ और विकास के नाम पर अरबों रुपये पानी की तरह बहायें जाएँ , उसका कोई फायदा नहीं होगा । हाँ इतना जरूर होगा कि गरीबी लाचारी बढ़ती जायेगी और लाचार बनाने वाले सरकारी नौकर सीसे के महलों में रहने लगेंगे । इसलिए मेरा यह कहना है कि - जब भी विकास की बात की जाये तो वह आम आदमी जिसके लिए आप विकास करना चाहते हैं , वही तय करे कि मुझे सबसे पहले यह विकास चाहिए । उसकी भागेदारी, उसके अनुसार यदि काम होगा, योजनायें बनेगीं, तभी विकास संभव है और पैसे का सही सदुपयोग होगा ।


*Photo by Dinesh Chandra Varshney for Bharat nav nirman only

Thursday, January 28, 2010

गरीब आज भी बिना राशनकार्ड के


लेखक: चुन्नीलाल (सामाजिक कार्यकर्ता)
सहयोगी, सलाहकार एवं लेखक,
भारत नव निर्माण (Evolving New India)
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कई बार लोगों के मुंह से, अधिकारीयों के मुंह से, मीडिया के मुंह से, सुप्रीम कोर्ट के मुंह से सुन चुका हूँ कि लोगों का राशन कार्ड जरूर बनना चाहिए। चाहे वो किसी भी जगह पर निवास कर रहें हों। चाहे झुग्गी झोपड़ी में या चाहे महलों में। सभी के पास राशन कार्ड होगा । लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है और सभी के पास राशन कार्ड है ही नहीं ।
ये बातें सुनकर बड़ी अच्छी लगतीं हैं कि चलो अब आम आदमी का भी राशन कार्ड बन जायेगा । राशन कार्ड बनवाने के लिए किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होगी । यदि गरीब के पास किसी भी प्रकार का सबूत नहीं होगा पर यदि कोई उसकी पहचान करा देगा तो भी राशन कार्ड बन जाएगा । उसे मकान की रजिस्ट्री, टेलीफोन बिल , पहचान पत्र, पासपोर्ट, लाइसेंस आदि की जरूरत नहीं पड़ेगी । यदि ये सबूत नहीं भी हैं तो भी राशन कार्ड बन सकता है । लेकिन ऐसा है कहीं नहीं । भले ही कोई अमीर बिना राशन कार्ड के ना हो पर गरीब आज भी बिना राशन कार्ड के हैं ।

आपूर्ति विभाग का अपना एक फार्मूला है कि बिना सबूत के राशन कार्ड नहीं बन सकता है । और अगर सबूत भी है तो सालो साल दौड़ने में लग जायेंगे । जब तक आपका राशन कार्ड बनेगा तब तक आप बूढ़े हो जायेंगे । तब राशन कार्ड की नहीं वृद्धावस्था पेंसन की जरूरत होगी और तब भी इसकी कोई गारंटी नहीं कि राशन कार्ड बन जाए । आपूर्ति विभाग से राशन कार्ड एक ही सबूत से बन सकते हैं और वह है घूंस । आपकी हैसियत यदि घूंस देने की है तो जहाँ से चाहो वहां से राशन कार्ड बनवा सकते हो । वह भी बिना सबूत के । चाहे आपूर्ति आफिस से सीधे या फिर वार्ड मेंबर से या फिर ब्रांच आफिस से ।

अब आप इसका एक जीता जागता उदाहरण ले लीजिये - शहर में बसे गरीब, बेघर,बेसहारा, बीमार, कुपोषण व्यक्तियों का इनका अपना कोई पहचान का सबूत नहीं है । बेचारे किसी प्रकार मजदूरी कर के, भिक्षा मांगकर, रिक्शा आदि चलाकर अपना पेट भरते हैं । अगर इनको सस्ता राशन लेना है तो इनके पास राशन कार्ड ही नहीं है । अब अगर यह समस्या लेकर आपूर्ति विभाग के पास जाते हैं तो वहां इनसे कहा जाता है कि - आपका राशन कार्ड तभी बनेगा जब आपके पास मकान, पासपोर्ट, बिजली, पहचान पत्र या फिर प्लाट की रजिस्ट्री के कागज़ हों ।अगर ये चीजें नहीं हैं तो घूंस दीजिये ।

सारी मुसीबत गरीब पर ही क्यूं आती है । पहली बात तो उसके लिए राशन कार्ड बनना मुस्किल है । अगर किसी प्रकार बन भी जाये तो भी वो इस पर अपना अधिकार नहीं मांग सकते । अगर अधिकार की बात करेंगे तो उन्हें बान्गलादेसी या दूसरे जगह के बासिन्दे होने का आरोप लगा कर राशन कार्ड कैंसिल करने की धमकी दी जाती है । जैसा की पिछले साल जनवरी 2009 में हुआ । बड़े कड़ाके की ठण्ड थी । मैंने सोचा चलो जिलाधिकारी महोदय से गरीब वर्ग के लिए कुछ गर्म कम्बलों की मांग की जाये । अगर किसी गरीब को एक गर्म कम्बल भी मिल जाये तो ठण्ड से थोड़ी रहत तो मिलेगी । बड़ी आशा के साथ जिलाधिकारी महोदय से विनय अनुनय की गयी। जैसे ही उनको इन गरीब झुग्गी झोपड़ी वालों के बारें में बताया गया तो कम्बल तो दूर, इन्हें हटाने के साथ-साथ राशन कार्ड कैंसिल करने के आदेश देने की धमकी दे दी । ये तो वही बात हुई- आये थे हरी भजन को, ओटन लगे कपाश ।

गरीब के नाम से लोगों को बड़ी जलन है। भाई अगर किसी प्रकार गरीब का राशनकार्ड बन जायेगा तो कम से कम उसे सस्ती दर पर राशन मिलेगा। जिससे वह एक समय तो भर पेट खाना खायेगा। भूंख से तो नहीं मरेगा। वह भी लोग नहीं चाहते, खासतौर पर सरकार । ठीक इसके उल्टा यदि आप किसी सरकारी राशन की दुकान पर चले जायिए तो पायेंगे कि कोटेदार साहब के पास इतने राशनकार्ड हैं जितने कि परिवार भी नहीं आते उस एरिया में। और सबसे मजे की बात यह है कि जिनके लिए यह राशन की दुकान यानी कोटा खुला है उनके पास तो राशन कार्ड ही नहीं है तो उन्हें सस्ता राशन देने की कोई जरूरत ही नहीं है। अब इससे बुरा क्या होगा की आपूर्ति विभाग अपनी खानापूर्ति तो पूरी करता है कि हर महीने गरीबों के नाम पर कोटेदार को राशन की सप्लाई कर देता है और कोटेदार साहब यह राशन प्राइवेट दुकानों को सप्लाई कर देते हैं । इस तरह सब मलाई काटते हैं ।गरीब के राशन लेने पर सबको परेशानी होती है ।लेकिन जब वही राशन को कोटेदार ब्लैक करता है तो किसी के कानों में जूँ तक नहीं रेगती ।अब बतायिये राशनकार्ड किसके लिए जरूरी है और पहले किसको ?
*Photo by: Dinesh Chandra Varshney for bharat nav nirman only

Monday, January 18, 2010

जन जन का बस एक ही नारा : सहज उपायों से स्वच्छ हो पर्यावरण हमारा


लेखक: रूपेश पाण्डेय
समीक्षक एवं अतिथि लेखक ,
भारत नव निर्माण (Evolving New India)
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बात है मेरे हालिया पैत्रिक निवास भ्रमण की , सदैव की तरह इस बार भी नाना प्रकार के विचार कौंधे और सदैव की भाँति मस्तिष्क के किसी कोने मे विलुप्त हो जाते किंतु तभी भारत नव निर्माण(Evolving New India)का यह चिठ्ठा स्मरण हो आया जो मेरे विचारों को शरण देने का उपयुक्त स्थल प्रतीत हुआ। बात आयी गयी हो जाती यदि कुछ दिन पूर्व मैने अपने एक अति वरिष्ठ अधिकारी से इस विषय मे आधिपत्य के साथ एक प्रभावपूर्ण चर्चा न की होती। अधिकारी हाल ही मे मुंबई मे एक सम्मेलन मे आमंत्रित किये गये थे, अपना श्वेत पत्र प्रस्तुत करने के लिये, विदित हो कि मेरी संस्था के एक उच्च पदाधिकारी होने के साथ साथ वे जाने माने पर्यावरणविद व पर्यावरण की रक्षा मे संलग्न एक कर्मठ कार्यवाहक भी हैं, कई बार चर्चा के दौरान वो इतने भावुक हो उठते हैं जितना कोई अपनी अतिप्रिय निकटस्थ की क्षति से भी न होता होगा, खैर चर्चा का सार था - "क्या ग्रामीण भारतीय जीवन शैली प्रकृति (Nature) के समीप है?" । "क्या पश्चिम जगत वापस उसी जीवन शैली के लिये करोंड़ो के अनुसंधान कर रहा है , जो हमारी दिनचर्या में शामिल है?"
मेरे वरिष्ठ ने कई प्रभावी तर्क प्रस्तुत किये जिसका सार यह था कि एक आम ग्रामीण भारतीय की दैनिक जीवन शैली में कई ऐसी बातें शामिल हैं जिन्हें पश्चिम के वैज्ञानिक एक अनुसंधान का परिणाम मानते हैं । गोबर से घर लीप कर उसे कीटाणुरहित रखने की बात हो , या अरहर के झाड़ का ईंधन और बर्तन धोने में होने वाला प्रयोग, दक्षिण भारत में नारियल के वृक्षों का भी ऐसा ही सदुपयोग किया जाता है । खाने में,तेल निकालने में,रस्सी बानाने में, ईंधन के रुप में, एक एक भाग का अधिकतम उपयोग, जिसे वैज्ञानिक "optimum utilization of resources" बोलते हैं और न जाने कितने सिद्धांत प्रतिपादित करके नोबेल जीत चुके हैं, चर्चा लंबी चली और काफी ज्ञानार्जन भी हुआ।
मेरे हालिया भ्रमण के दौरान जो बातें मैंने ध्यान दी उसमें एक मेरे लिये भी नयी और रोचक थी, हम रीवा से शहडोल की तरफ जा रहे थे,राज्य सरकार के कुछ प्रशंसनीय कार्यों में एक रीवा-शहडोल मार्ग है । पुराने समय मे जिस दूरी को तय करने में नौ घण्टे लग जाते थे आज वही आराम से तीन से चार घण्टे में तय होती है । रास्ते भर मैं गौर करता रहा, मार्ग में कुछ सूखे झाड़ पड़े थे । पहले लगा कि किसी वाहन से गिर गये होंगे, किंतु तकरीबन पचास kms तक देखने के बाद उत्सुकतावश मैंने चालक से पूछा "भाई ये झाड़ बीच सड़क में किसने डाले?" । तब चालक ने हँस कर कहा - लगता है आप बड़े शहर से आये हो, ये एक प्रकार की जंगली जड़ी -बूटी का झाड़ है जिसे "चकौड़ा" कहते हैं, इसके बीज औषधि के रुप में काम आते हैं, जब मार्ग से वाहन निकलते हैं तो इनके ऊपर से निकालने पर बीज स्वयम बाहर आ जाते हैं, जिसका तेल निकाला जाता है और दवा के रुप में प्रयोग होता है । "चकौड़ा" इस शब्द को मैंने सुना तो था किंतु अर्थ नहीं जानता था । एक पुरानी काहावत है - "रहें चकौड़ा में और बातें करें व्रंदावन की" । अब अर्थ समझ आया, लेकिन यहाँ "चकौड़ा" व्रंदावन से अधिक सम्माननीय लगा मुझे।
"वाह!" क्या दिमाग़ लगाया है, सुबह झाड़ रखकर जाओ शाम को चुने हुऐ बीज ले जाओ, एकदम "common sense" हो सकता है। कोई अमेरिकन कंपनी इस काम के लिये भी लाखों की मशीन बना दे और हम उसे आयात भी कर लें, किंतु ज़रा सा "common sense" लगाया जाये तो हर बात का सरल उपाय उपलब्ध है, और "common" तथा सरल बनाते हुऐ बात को संबंधित कर देते हैं युवाओं में बड़ी लोकप्रिय हुई फिल्म "3 idiots" से, सही मायनों में वहाँ भी सोचने के कई बड़े सरल और सहज तरीके बताये गये हैं, अफसोस यह रहा कि बहुतेरों ने फिल्म से यह सीख ले ली कि "आधुनिक शिक्षा प्रणाली बकवास है" और उसके विरोध मे झंडा खड़ा करो।

बड़ी सोच में इस तरह दब गये हम,
न सोचा किये और रस्ते भी होंगे,
गये भागते, चीरते,लड़खड़ाते ,
न सोचा किये, जो उलझते भी होंगे,
और एक आदमी जानता फिर भी चुप था,
सब हँसते मिलेंगे,
जो सोचा किये और रस्ते भी होंगे.
"चकौड़ा -विज्ञान" से मंत्रमुग्ध एक ढाबे में रुका ही था कि देखने को मिल गया "विज्ञापन" का सस्ता,सरल,आसान और बहुत प्रभावी उपाय, छायाचित्र संलग्न है और स्वयं ही कहानी बयान कर रहा है।