Thursday, January 28, 2010

गरीब आज भी बिना राशनकार्ड के


लेखक: चुन्नीलाल (सामाजिक कार्यकर्ता)
सहयोगी, सलाहकार एवं लेखक,
भारत नव निर्माण (Evolving New India)
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कई बार लोगों के मुंह से, अधिकारीयों के मुंह से, मीडिया के मुंह से, सुप्रीम कोर्ट के मुंह से सुन चुका हूँ कि लोगों का राशन कार्ड जरूर बनना चाहिए। चाहे वो किसी भी जगह पर निवास कर रहें हों। चाहे झुग्गी झोपड़ी में या चाहे महलों में। सभी के पास राशन कार्ड होगा । लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है और सभी के पास राशन कार्ड है ही नहीं ।
ये बातें सुनकर बड़ी अच्छी लगतीं हैं कि चलो अब आम आदमी का भी राशन कार्ड बन जायेगा । राशन कार्ड बनवाने के लिए किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होगी । यदि गरीब के पास किसी भी प्रकार का सबूत नहीं होगा पर यदि कोई उसकी पहचान करा देगा तो भी राशन कार्ड बन जाएगा । उसे मकान की रजिस्ट्री, टेलीफोन बिल , पहचान पत्र, पासपोर्ट, लाइसेंस आदि की जरूरत नहीं पड़ेगी । यदि ये सबूत नहीं भी हैं तो भी राशन कार्ड बन सकता है । लेकिन ऐसा है कहीं नहीं । भले ही कोई अमीर बिना राशन कार्ड के ना हो पर गरीब आज भी बिना राशन कार्ड के हैं ।

आपूर्ति विभाग का अपना एक फार्मूला है कि बिना सबूत के राशन कार्ड नहीं बन सकता है । और अगर सबूत भी है तो सालो साल दौड़ने में लग जायेंगे । जब तक आपका राशन कार्ड बनेगा तब तक आप बूढ़े हो जायेंगे । तब राशन कार्ड की नहीं वृद्धावस्था पेंसन की जरूरत होगी और तब भी इसकी कोई गारंटी नहीं कि राशन कार्ड बन जाए । आपूर्ति विभाग से राशन कार्ड एक ही सबूत से बन सकते हैं और वह है घूंस । आपकी हैसियत यदि घूंस देने की है तो जहाँ से चाहो वहां से राशन कार्ड बनवा सकते हो । वह भी बिना सबूत के । चाहे आपूर्ति आफिस से सीधे या फिर वार्ड मेंबर से या फिर ब्रांच आफिस से ।

अब आप इसका एक जीता जागता उदाहरण ले लीजिये - शहर में बसे गरीब, बेघर,बेसहारा, बीमार, कुपोषण व्यक्तियों का इनका अपना कोई पहचान का सबूत नहीं है । बेचारे किसी प्रकार मजदूरी कर के, भिक्षा मांगकर, रिक्शा आदि चलाकर अपना पेट भरते हैं । अगर इनको सस्ता राशन लेना है तो इनके पास राशन कार्ड ही नहीं है । अब अगर यह समस्या लेकर आपूर्ति विभाग के पास जाते हैं तो वहां इनसे कहा जाता है कि - आपका राशन कार्ड तभी बनेगा जब आपके पास मकान, पासपोर्ट, बिजली, पहचान पत्र या फिर प्लाट की रजिस्ट्री के कागज़ हों ।अगर ये चीजें नहीं हैं तो घूंस दीजिये ।

सारी मुसीबत गरीब पर ही क्यूं आती है । पहली बात तो उसके लिए राशन कार्ड बनना मुस्किल है । अगर किसी प्रकार बन भी जाये तो भी वो इस पर अपना अधिकार नहीं मांग सकते । अगर अधिकार की बात करेंगे तो उन्हें बान्गलादेसी या दूसरे जगह के बासिन्दे होने का आरोप लगा कर राशन कार्ड कैंसिल करने की धमकी दी जाती है । जैसा की पिछले साल जनवरी 2009 में हुआ । बड़े कड़ाके की ठण्ड थी । मैंने सोचा चलो जिलाधिकारी महोदय से गरीब वर्ग के लिए कुछ गर्म कम्बलों की मांग की जाये । अगर किसी गरीब को एक गर्म कम्बल भी मिल जाये तो ठण्ड से थोड़ी रहत तो मिलेगी । बड़ी आशा के साथ जिलाधिकारी महोदय से विनय अनुनय की गयी। जैसे ही उनको इन गरीब झुग्गी झोपड़ी वालों के बारें में बताया गया तो कम्बल तो दूर, इन्हें हटाने के साथ-साथ राशन कार्ड कैंसिल करने के आदेश देने की धमकी दे दी । ये तो वही बात हुई- आये थे हरी भजन को, ओटन लगे कपाश ।

गरीब के नाम से लोगों को बड़ी जलन है। भाई अगर किसी प्रकार गरीब का राशनकार्ड बन जायेगा तो कम से कम उसे सस्ती दर पर राशन मिलेगा। जिससे वह एक समय तो भर पेट खाना खायेगा। भूंख से तो नहीं मरेगा। वह भी लोग नहीं चाहते, खासतौर पर सरकार । ठीक इसके उल्टा यदि आप किसी सरकारी राशन की दुकान पर चले जायिए तो पायेंगे कि कोटेदार साहब के पास इतने राशनकार्ड हैं जितने कि परिवार भी नहीं आते उस एरिया में। और सबसे मजे की बात यह है कि जिनके लिए यह राशन की दुकान यानी कोटा खुला है उनके पास तो राशन कार्ड ही नहीं है तो उन्हें सस्ता राशन देने की कोई जरूरत ही नहीं है। अब इससे बुरा क्या होगा की आपूर्ति विभाग अपनी खानापूर्ति तो पूरी करता है कि हर महीने गरीबों के नाम पर कोटेदार को राशन की सप्लाई कर देता है और कोटेदार साहब यह राशन प्राइवेट दुकानों को सप्लाई कर देते हैं । इस तरह सब मलाई काटते हैं ।गरीब के राशन लेने पर सबको परेशानी होती है ।लेकिन जब वही राशन को कोटेदार ब्लैक करता है तो किसी के कानों में जूँ तक नहीं रेगती ।अब बतायिये राशनकार्ड किसके लिए जरूरी है और पहले किसको ?
*Photo by: Dinesh Chandra Varshney for bharat nav nirman only

Monday, January 18, 2010

जन जन का बस एक ही नारा : सहज उपायों से स्वच्छ हो पर्यावरण हमारा


लेखक: रूपेश पाण्डेय
समीक्षक एवं अतिथि लेखक ,
भारत नव निर्माण (Evolving New India)
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बात है मेरे हालिया पैत्रिक निवास भ्रमण की , सदैव की तरह इस बार भी नाना प्रकार के विचार कौंधे और सदैव की भाँति मस्तिष्क के किसी कोने मे विलुप्त हो जाते किंतु तभी भारत नव निर्माण(Evolving New India)का यह चिठ्ठा स्मरण हो आया जो मेरे विचारों को शरण देने का उपयुक्त स्थल प्रतीत हुआ। बात आयी गयी हो जाती यदि कुछ दिन पूर्व मैने अपने एक अति वरिष्ठ अधिकारी से इस विषय मे आधिपत्य के साथ एक प्रभावपूर्ण चर्चा न की होती। अधिकारी हाल ही मे मुंबई मे एक सम्मेलन मे आमंत्रित किये गये थे, अपना श्वेत पत्र प्रस्तुत करने के लिये, विदित हो कि मेरी संस्था के एक उच्च पदाधिकारी होने के साथ साथ वे जाने माने पर्यावरणविद व पर्यावरण की रक्षा मे संलग्न एक कर्मठ कार्यवाहक भी हैं, कई बार चर्चा के दौरान वो इतने भावुक हो उठते हैं जितना कोई अपनी अतिप्रिय निकटस्थ की क्षति से भी न होता होगा, खैर चर्चा का सार था - "क्या ग्रामीण भारतीय जीवन शैली प्रकृति (Nature) के समीप है?" । "क्या पश्चिम जगत वापस उसी जीवन शैली के लिये करोंड़ो के अनुसंधान कर रहा है , जो हमारी दिनचर्या में शामिल है?"
मेरे वरिष्ठ ने कई प्रभावी तर्क प्रस्तुत किये जिसका सार यह था कि एक आम ग्रामीण भारतीय की दैनिक जीवन शैली में कई ऐसी बातें शामिल हैं जिन्हें पश्चिम के वैज्ञानिक एक अनुसंधान का परिणाम मानते हैं । गोबर से घर लीप कर उसे कीटाणुरहित रखने की बात हो , या अरहर के झाड़ का ईंधन और बर्तन धोने में होने वाला प्रयोग, दक्षिण भारत में नारियल के वृक्षों का भी ऐसा ही सदुपयोग किया जाता है । खाने में,तेल निकालने में,रस्सी बानाने में, ईंधन के रुप में, एक एक भाग का अधिकतम उपयोग, जिसे वैज्ञानिक "optimum utilization of resources" बोलते हैं और न जाने कितने सिद्धांत प्रतिपादित करके नोबेल जीत चुके हैं, चर्चा लंबी चली और काफी ज्ञानार्जन भी हुआ।
मेरे हालिया भ्रमण के दौरान जो बातें मैंने ध्यान दी उसमें एक मेरे लिये भी नयी और रोचक थी, हम रीवा से शहडोल की तरफ जा रहे थे,राज्य सरकार के कुछ प्रशंसनीय कार्यों में एक रीवा-शहडोल मार्ग है । पुराने समय मे जिस दूरी को तय करने में नौ घण्टे लग जाते थे आज वही आराम से तीन से चार घण्टे में तय होती है । रास्ते भर मैं गौर करता रहा, मार्ग में कुछ सूखे झाड़ पड़े थे । पहले लगा कि किसी वाहन से गिर गये होंगे, किंतु तकरीबन पचास kms तक देखने के बाद उत्सुकतावश मैंने चालक से पूछा "भाई ये झाड़ बीच सड़क में किसने डाले?" । तब चालक ने हँस कर कहा - लगता है आप बड़े शहर से आये हो, ये एक प्रकार की जंगली जड़ी -बूटी का झाड़ है जिसे "चकौड़ा" कहते हैं, इसके बीज औषधि के रुप में काम आते हैं, जब मार्ग से वाहन निकलते हैं तो इनके ऊपर से निकालने पर बीज स्वयम बाहर आ जाते हैं, जिसका तेल निकाला जाता है और दवा के रुप में प्रयोग होता है । "चकौड़ा" इस शब्द को मैंने सुना तो था किंतु अर्थ नहीं जानता था । एक पुरानी काहावत है - "रहें चकौड़ा में और बातें करें व्रंदावन की" । अब अर्थ समझ आया, लेकिन यहाँ "चकौड़ा" व्रंदावन से अधिक सम्माननीय लगा मुझे।
"वाह!" क्या दिमाग़ लगाया है, सुबह झाड़ रखकर जाओ शाम को चुने हुऐ बीज ले जाओ, एकदम "common sense" हो सकता है। कोई अमेरिकन कंपनी इस काम के लिये भी लाखों की मशीन बना दे और हम उसे आयात भी कर लें, किंतु ज़रा सा "common sense" लगाया जाये तो हर बात का सरल उपाय उपलब्ध है, और "common" तथा सरल बनाते हुऐ बात को संबंधित कर देते हैं युवाओं में बड़ी लोकप्रिय हुई फिल्म "3 idiots" से, सही मायनों में वहाँ भी सोचने के कई बड़े सरल और सहज तरीके बताये गये हैं, अफसोस यह रहा कि बहुतेरों ने फिल्म से यह सीख ले ली कि "आधुनिक शिक्षा प्रणाली बकवास है" और उसके विरोध मे झंडा खड़ा करो।

बड़ी सोच में इस तरह दब गये हम,
न सोचा किये और रस्ते भी होंगे,
गये भागते, चीरते,लड़खड़ाते ,
न सोचा किये, जो उलझते भी होंगे,
और एक आदमी जानता फिर भी चुप था,
सब हँसते मिलेंगे,
जो सोचा किये और रस्ते भी होंगे.
"चकौड़ा -विज्ञान" से मंत्रमुग्ध एक ढाबे में रुका ही था कि देखने को मिल गया "विज्ञापन" का सस्ता,सरल,आसान और बहुत प्रभावी उपाय, छायाचित्र संलग्न है और स्वयं ही कहानी बयान कर रहा है।